Tuesday, 27 August 2019

दावानल

दावानल

बहुत विचलित सी मनःस्थिति से गुजर रही थी सोनाक्षी आजकल। तभी अष्टान्हिका महोत्सव शुरू हो गए। आज पहला ही दिन था। सुबह से मन ही मन खुद के सवाल-जवाब में उलझी रही।
शाम को भजन संध्या के लिए मंदिर जाने को बेमन से तैयार हुई। अपनी ही धुन में डूबी मंदिर तक पहुंची, कुछ दूर पहले से ही मंदिर में चल रहे भजन की पंक्ति सुनाई दे रही थी।
मन की शीतल कर दे ज्वाला
कष्ट सभी के हरने वाला
प्रभु नाम का ले ले सहारा
रे! बावरे, बावरे,..
अचानक मंदिर में प्रवेश करते हुए गुनगुनाने भी लगी और मन एक विपरीत धारा में जाने लगा पर बहुत देर स्थिर नहीं रह पाया।
मन की ज्वाला भी भला कभी ठंडी हुई है, टहनियों के टकराने की आवाज़ कभी जानवरों के होने डर लेकर आता है कभी पत्तों के हिलने से शीतल बयार। पर सूखी टहनियों के टकराने से ही कभी-कभी उसी घने जंगल में दावानल भी आता है जिसे रोकना, बुझाना या शीतल करना किसी के बस में कहाँ होता है? खैर! ये तो वक्त-वक्त की बात है।
तभी सोनाक्षी के मन में कश्मकश में भी सकारात्मक सोच ने दखल दिया कि कई दावानल भी तो कालांतर में कोयले की खदानों में तबदील हो जाते हैं। और जिसका नसीब अच्छा हुआ उसे उसी कोयले में हीरा भी मिल जाता है।
सुकून के पल उसकी मनोदशा में हीरे के समान ही अनमोल थे, झूठ, फरेब, धोखे और अहम की सूखी टहनियों से आए दावानल ने कई रिश्तों को स्वाहा किया है, डर गई थी भीतर ही भीतर कि ये आग बुझ भी गई तो शेष क्या?
मंदिर में वापस मन लौटा तो सुकून साथ था। वही हीरा जिसकी उसे तलाश थी। डर और संशय के कोयलों के बीच इस हीरे ने राहत दी और लौटकर घर जाते हुए बीते पलों को विस्मृत करने की कोशिश में मन ही मन गुनगुनाने लगी,...!
जीने के लिए सोचा ही नहीं
दर्द संभालने होंगे,
मुस्कुराये तो, मुस्कुराने के
क़र्ज़ उतारने होंगे,
मुस्कुराऊं कभी तो लगता है
जैसे होंठो पे क़र्ज़ रखा है,
तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी,
हैरान हूँ मैं,.. हैरान हूँ मैं,...!

प्रीति सुराना

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