इक अबूझी सी पहेली बूझते।
रात बीती याद ही को भूलते।
याद के जिस भी सिरे को छू लिया,
हाथ से देखा सिरा वो छूटते।
घूमता मंजर नज़र में पतझड़ी,
शाख से देखा पत्ता जो टूटते।
देखकर उड़ते परिंदो को कभी,
सोचते हम भी गगन को चूमते।
जो पता होते जवाब हमें सभी ,
तो सवाल न फिर कभी यूँ पूछते।
कुछ नहीं खोया कभी लेकिन यहाँ,
फिर रहे खुद को यहीं हम ढूंढते।
जो कभी मिल जाती सच में 'प्रीत' वो,
यूँ न जीवन से कभी फिर जूझते। ,..प्रीति सुराना
No comments:
Post a Comment