घावों को सी लूं?
आँसू पी लूं?
या छालों पर
दवा लगा लूं?
सोच रही हूँ बिखरे मन को
किस तरह और कैसे संभालूं?
बंधन जोडूं?
नाते तोडूं?
या अंतस की
गिरहें खोलूं?
मेरा मन है, मर्जी भी मेरी
जोडूं, तोडूं या फिर खोलूं?
सहती रहूँ?
रोती रहूँ?
मौन रहूँ
या चुप्पी तोडूं?
सारे निर्णय मैं खुद लूँगी
क्यों और किसी से किस्से जोडूं?
राज़ छुपाऊं?
सबको बताऊं
रोकूँ खुद को?
या बहने दूँ?
समय की धारा से सीखूंगी
दोमुहों से डर, जीना क्यों छोडूं?
अबला नहीं हूँ
न हूँ अनपढ़
न ही मेरे
संस्कार है अनगढ़
हूँ सक्षम, कमजोर नहीं हूँ
किसी के लिए क्यों खुद को तोडूं?
मुझे पता है
सब है दिखावा
अपनापन है
एक छलावा
जिस राह चलने की ठानी है
हिम्मत से चलूं क्यों राहें मोडूं?
प्रीति सुराना
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