नामानुरुप रक्षित भैय्या
पितातुल्य पर पिता से बड़े।
मौन रहकर भी सालों से
सदा छत्रछाया बनकर खड़े।
आ. रक्षित दवे जिन्होंने मेरी 500 से भी अधिक रचनाओं का गुजराती अनुवाद किया है, पूरी तरह गुजराती संस्कृति में भोजन किया और साथ ही बचपन याद किया, पूजा के साथ बचपन में ऐसे ही पापा के हाथ का खाना खाया करते थे, वैसे आज भी जब पूजा के घर जाती हूँ तो बचपन जीती हूँ पर रक्षित भैय्या ने वो कमी भी यहीं पूरी कर दी। इनके अनूठे स्नेह और आशीर्वाद की हमेशा ऋणी रहूँगी।
प्रीति सुराना
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