सोच कुछ खास
मैं जीती थी खास बनकर
पर सोच हमेशा आम ही रही!
वही जिंदगी से हज़ार शिकायतें
कभी राजनैतिक,
कभी सामाजिक,
कभी आर्थिक,
कभी पारिवारिक,
कुछ नहीं तो
प्राकृतिक विपदाओं के लिये कोफ्त,..!
हर बात में सवाल
ऐसा क्यों
वैसा क्यों
ये क्यों
वो क्यों
इसे ऐसा होना चाहिए
उसे वैसा होना चाहिए
ये यहाँ क्यों
ये वहाँ क्यों नहीं
बस हर बात में नुक्ताचीनी
और हर बात में न न नहीं नहीं
तभी एक दिन
रवींद्रनाथ टैगोर की कही एक बात
जेहन में घर कर गई
उन्होंने लिखा था
सिर्फ खड़े होकर पानी देखने से
आप नदी नहीं पार कर सकते।
आज समझा
और वो सारे बदलाव
जो समाज में चाहती थी
वो सब खुद पर लागू करने लगी
ठान लिया है
जैसी दुनिया चाहती हूँ,
मैं पहले खुद वैसी बनूँ।
जैसा मैं औरों से व्यवहार चाहती हूँ,
खुद वैसा करुँ!
यकीनन मैं बदलने लगी हूँ
और अब जिंदगी से शिकायत नहीं
सवाल करती हूँ हर रोज
बता जिंदगी
तुझे मुझसे तो नहीं कोई शिकायत
और
मुझमें क्या बदलना है
दे मुझे अब तू मुझे हिदायत!
अब मैं भले ही हूँ आम
पर अब होने लगी है सोच कुछ खास।
प्रीति सुराना
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