मन का घर
मैंने अपने मन के घर में,फिर खोले द्वार खुशियों के!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे,जो भी पल थे सुधियों में!!
कितना व्यर्थ बिताया जीवन
अर्थ न खुद को मिल पाया
खुद ही खुद को स्वप्न दिखाए
खुद ही खुद को भरमाया
आज किया है तत्पर खुद को
कुछ सत्य सजाए नयनों में
मैंने अपने मन के घर में,फिर खोले द्वार खुशियों के!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे,जो भी पल थे सुधियों में!!
जो भी बुरा था, जो मिट सकता था
आंसुओं से वो सब धो डाला,
भ्रम के जाले झाड़ दिए सब
कुविचारों को मन से निकाला,
आज सजाना है फिर घर को
अब नहीं देना है किराए में,
मैंने अपने मन के घर में,फिर खोले द्वार खुशियों के!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे,जो भी पल थे सुधियों में!!
घर जब खुद का अपना है
और अपनों का सपना है,
तो फिर क्यों कोई भी दखल दे
रखेंगे जैसे भी रखना है,
अपना जीवन अपनों से है
नहीं आना लगाए-बुझाए में,
मैंने अपने मन के घर में,फिर खोले द्वार खुशियों के!
ढूंढ के लाई बिखरे-बिखरे,जो भी पल थे सुधियों में!!
प्रीति सुराना
No comments:
Post a Comment