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अपने ही घर पर करते है सब हरदम अपनी मनमानी अपनों को अवहेलित करके बातें गैरों की ही मानी , नाराज़ नहीं पर दुखी हुआ है मेरा ये मासूम सा मन, बचपन शेष है मुझमे अबतक मैंने दुनिया कब पहचानी ??
प्रीति सुराना
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