Monday 16 July 2018

वैसी की वैसी


आज!
कुछ पल ही सही
इस तन से अलग मन होना चाहती हूँ,...
तन मिट्टी का
मिट्टी में मिलाकर
मन के आँसुओं से भिगोना चाहती हूँ,...

फिर मिट्टी को मिट्टी से मिलाकर
चाहती हूं
मन को बना लूँ
एक कुम्हार
जो गढ़ दे एक बार फिर से
मुझे मुझ जैसा,...

जिसमें
न हो कोई भी
अप्राकृतिक रंग, रूप, भाव,
सब कुछ हो बिल्कुल वैसा
जैसा उस ऊपरवाले कुम्हार ने
गढ़ा था,..

धरती के तथाकथित कुम्हारों ने
उस विधाता की गलतियां निकालने
और उसे सुधारने में
इतने रंग, इतनी परतें,
इतने बंधन, इतने मोड़ डाल दिये
कि अब मैं वो रही ही नहीं जो मैं थी,...

उसपर भी सबसे बड़ी विडंबना
मेरी बनावट को बदलने की कोशिश में लगा
कोई भी अपना-पराया
खुश नहीं
मेरे बदले स्वरूप से है
शिकायत सभी को,...

जब कोई भी नहीं संतुष्ट मुझसे
या मुझमे हुए किसी भी बदलाव से ,
तो कम से कम मैं ही खुश हो सकूँ
कि लाख अवगुण हों मुझमें
पर हूँ वैसी की वैसी
जैसा गढ़ा था सृष्टि के मूल रचनाकार ने,...

विधाता ने कमियाँ छोड़ी है मुझमें
तो होगा कोई न कोई ठोस कारण,
हे नियंता!
एक बार सुन लो प्रार्थना
और बन जाने दो फिर से
मुझे मुझ सा,....

प्रीति सुराना

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