Monday 30 July 2018

द्वंद की पीड़ा

व्यथित हूँ
अंतर्मन में झेल रही हूँ
सतत एक द्वंद की पीड़ा
जो किया
जब किया
जितना किया
यथा सामर्थ्य पूर्ण समर्पण
और
दायित्वों के प्रति निष्ठाभाव से किया
पर
परिणाम
हर बार एक ही
सिरहाने मिली
उलाहनों की पोटली
पैबंद लगा बिछौना
अनमनापन
निराशमन
और
स्तंभित कदम
जो रोक रहे आगे कुछ भी करने से,..
मन से आवाज़ आती है
जो करता है
हमेशा दोष उसमें ही ढूंढे जाते हैं
बस कर्म किये जा,...
मस्तिष्क कहता है
वो अधिक सुखी हैं
जो कुछ नही करते
कम से कम
दोषारोपण के
दंश झेलने से बच जाते है,...
जूझ रही हूँ प्रतिपल
आखिर
आगे क्या करुँ क्या न करुँ??
सुनो!
सच कहूँ
पुकारती हैं फिर मुझे
गुमानाम राहें
न मिलूं अगर कभी
तो ढूंढ लेना
उसी गहनतम अंधेरे कोने में
जिसका पता किसी को नहीं
सिवा तुम्हारे,.... प्रीति सुराना

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