Sunday 3 December 2017

मेरे दोनो पैर

मेरे दोनों पैर

एक दुर्घटना
और
संवेदनशून्य हुए
मेरे दोनों पैर
असहाय, असहज और अनुपयोगी
और
बोझ सा लगता जीवन,..

अंतस में खुद को टटोलकर देखा
बची-खुची खुरचन सी थी
कुछ संभावनाएँ
सारी खुरचन को समेटकर
ले आई अंतस के उस कोने में
जहाँ सहेज रखा था बचपन से
थोड़ा-थोड़ा करके ढेर सारा
आत्मविश्वास,..

उठी,
उठकर खड़ी हुई,
कोशिश की,
असहनीय पीड़ा को सहकर
कदम बढ़ाने की
पहली ही बार मे गिर पड़ी,
फिर उठी एक ज़िद के साथ
चली कुछ कदम,..

लोगों ने बढ़ाए हाथ
स्वार्थ, सुविधाएं, सहानुभूति, तरस की
कई-कई बैसाखियाँ और सीढियाँ बनकर,
सब को नकार कर बढ़ी
लड़खड़ाते कदमों से,
डगमगाया कई बार मेरा आत्मविश्वास,...

मन ने कहा
ये ज़िद क्यों?
ले लो सहारा
और बढ़ जाओ आगे,
जी लो कुछ पल
पर आत्मसम्मान रोक देता
सख़्ती से हर बार,..

जब-जब वेदना के स्वर निकले हौले से,
बनी उपहास का पात्र भी,
जब-जब मन की मौन चीख से उभरी
मेरे चेहरे पर पीड़ा की लकीरें,
हँसते देखा अपने ही पीछे अपनों को,
पीड़ा के उबालपर वाष्पित होकर
पलकों से ढुलक आई अश्रुधारा को देख
लोगों ने कहा कमजोर मुझे,..

किसी ने नहीं देखी वो पीड़ा
जो भीतर कहीं मुझे निचोड़ रही थी,
खैर!
बढ़ती रही,
उठती-गिरती,
लड़खड़ाती हुई,
ऊबड़खाबड़ रास्तों पर भी संभलकर,..
कई बार मिले सपाट धरातल भी पर
फिसलन के भय के साथ,...

चलते-चलते एक दिन महसूस किया
चल रही हूं
हर पीड़ा के साथ
और एक पल को लगा
तुम्हारे कदम मेरे बराबरी पर आ रुके
मधुर स्मित के साथ किया दोनों ने अभिवादन
और मौन ही दी स्वीकृति साथ चलने की,..

लेकिन
तुम्हारी गति तेज थी
मैं नहीं कर पाई बराबरी
पर रुकी नहीं,
न चाहा कि रोक लूं तुम्हें अपने साथ,
चल रही हूं अब भी धीरे-धीरे
सधे कदमों से,..
माना
नियति है घाव पर ही लगती है
चोट बार-बार, हर बार,
पर अब डाल रही हूं आदत धीरे-धीरे,..

सच हो रही है अब
सुखद अनुभूति
लौट रही है
संवेदनाएं
संवेदनशून्य मेरे दोनों पैरों में
चल रही हूं
एक बार फिर
अपने पैरों पर,...

सुनो!
न थी, न है, न कभी होगी जरूरत
कभी किसी सहारे या सहानुभति की,..
तुम बनना मेरे वही दो पैर
हाँ!
मेरे दो पैर
प्रेम और विश्वास,...।

प्रीति सुराना

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