Tuesday 12 March 2013

तुम्हारी यादों का एक सिरा,.....



उस दिन 
जब तुम रूठकर जा रहे थे,..
तो न जाने क्यूं 
कुछ सोचे बिना 
मैंने थाम लिया था 
तुम्हारी यादों का एक सिरा,.....

और 
आज तक 
उसको थामे चल रही हूं 
जिन्दगी की राह में 
कई बार लगा कि सिरा छूट रहा है 
मेरे हाथों से,.. 

और 
हर बार 
मैं और कसकर पकड़ लेती 
वो सिरा,.... 
मानो 
उसमे मेरी जान बसती हो,... 

यादों के उस सिरे को 
मै जितना कस के पकड़ती 
वो यादें खुलती जाती थी 
परत-परत 
बेंत की रस्सी की तरह 
रेशा-रेशा,..

एक पल 
ऐसा भी आया,..
जब मैं उन 
तार-तार 
यादों के भंवर में लिपटी 
चलती ही जा रही थी,...

और
बस अब 
जब लगने लगा 
कि उलझती जा रही हूं,...
कहीं थककर 
गिर ना पड़ूं,..

अचानक 
किसी ने मुझे 
संभाल लिया,....
वरना 
जाने यादों का ये भंवर 
मुझे कंहा लेकर जाता,..

ओह!
अच्छा किया तुम आ गए
पर
मैं तुमसे रूठूंगी नही
भला ऐसा भी क्या रूठना
कि जान पर ही बन आए..... प्रीति सुराना

7 comments:

  1. कई बार यादें सँभालने नहीं देतीं .. पर खुद ही संभालना होता है ... कोई दूसरा संभाल ले तो धुरी मिल जाती है ...

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  2. कभी कभी रूठना पीड़ादायक हो जाता है
    सुन्दर भावमयी प्रस्तुति

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  3. रूठना मना है?

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  4. ला-जवाब" जबर्दस्त!!
    कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-

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  5. बहुत बढ़िया प्रस्तुति
    LATEST POSTसपना और तुम

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